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  • अफगानिस्तान मे आतंकी संघटन तालिबान की फिर घुसपैठ -

युद्धग्रस्त अफगानिस्तान में स्थायी शांति लाने और अमेरिकी सैनिकी की स्वदेश वापसी के लिए कई दौर की बातचीत के बाद अमेरिका और तालिबान ने 29 फरवरी, 2020 को दोहा में एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. अमेरिका की तरफ से तालिबान के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद से भारत अफगानिस्तान की स्थिति पर नजर रखे हुए है. अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबान के साथ 20 वर्षों से जारी अमेरिकी जंग खत्म हो जाएगी. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने गुरुवार को कहा कि अफगानिस्तान में अमेरिकी मिशन 31 अगस्त तक समाप्त हो जाएगा.

तालिबान और अमेरिका पिछले 20 वर्षों से अफ़ग़ानिस्तान में जंग लड़ रहे हैं. लेकिन, अब जो समझौता दोनों पक्षों में हुआ है, उसके अंतर्गत अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने के लिए एक समयसीमा निर्धारित की गई है. और, इसके बदले में तालिबान ने वादा किया है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में अल क़ायदा या ऐसे किसी भी आतंकवादी संगठन को पनाह नहीं देगा, जो अमेरिका के लिए ख़तरा हों. इस समझौते पर दस्तख़त होने के बाद से तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और नैटो सैनिकों को निशाना बनाने के बजाय अपनी पूरी ताक़त देश की आम जनता को निशाना बनाने में लगा दी है. इस रास्ते पर चलते हुए तालिबान ने ये साफ़ इशारा कर दिया है कि वो अमेरिका के हटने के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान में हर क़ीमत पर अपना जिहाद आगे भी जारी रखेगा.

तालिबान आतंकियो को अमेरिका के साथ बातचीत की टेबल पर लाने के लिए पाकिस्तान ने तालिबान के सह संस्थापक मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को अक्टूबर 2018 में कराची की एक जेल से रिहा भी कर दिया था. उसके बाद से अब्दुल्ला गनी बरादर, तालिबान की ओर से अमेरिका से बातचीत का मुख्य वार्ताकार बना.

तालेबान एक सुन्नी इस्लामिक आन्दोलन है। तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है विध्यार्थी (छात्र)। ऐसे छात्र, जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा पर यकीन करते हैं। तालिबान इस्लामिक कट्टपंथी राजनीतिक आंदोलन हैं। 1990 की शुरुआत में उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान का उदय माना जाता है। इस दौर में सोवियत सेना अफगानिस्तान से वापस जा रही थी। पश्तून आंदोलन के सहारे तालिबान ने अफगानिस्तान में अपनी जड़े जमा ली थीं। इस आंदोलन का उद्देश्य था कि लोगों को धार्मिक मदरसों में जाना चाहिए। इन मदरसों का खर्च सऊदी अरब द्वारा दिया जाता था। 1996 में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के अधिकतर क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। 1996 से लेकर 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दौरान मुल्ला उमर देश का सर्वोच्च धार्मिक नेता था। उसने खुद को हेड ऑफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर रखा था। तालेबान आन्दोलन को सिर्फ पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने ही मान्यता दे रखी थी। अफगानिस्तान को पाषाणयुग में पहुँचाने के लिए तालिबान को जिम्मेदार माना जाता है।

अमेरिका पर 9/11 के आतंकवादी हमले से पहले जब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का राज (1996-2001) मे अल क़ायदा पूरे देश में कई आतंकवादी ट्रेनिंग सेंटर चलाया करता था. इसलिए अमेरिका ने सीधे हवाई हमलों से तालिबान को सान 2001 मे अफगानिस्तान से बेदखल कर दिया । किन्तु तालिबान ने इस क्षेत्र के तमाम आतंकवादी संगठनों के साथ क़रीबी संबंध बनाए हुए थे. ख़ास तौर से पाकिस्तान के आतंकवादी समूहों के अफ़ग़ानिस्तान में अल क़ायदा के आक़ाओं से काफ़ी अच्छे संबंध थे. जब इस्लामिक स्टेट (ISIS) ने इस क्षेत्र में अपनी शाखा (ISKP) खोली, तो उसने अपने आपको अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर मज़बूती से स्थापित करने में सफलता प्राप्त की. जबकि इस इलाक़े में अल क़ायदा और हक़्क़ानी नेटवर्क जैसे आतंकवादी संगठन पहले ही मज़बूत पकड़ बनाए हुए थे. 2001 के अफगानिस्तान युद्द के बाद यह लुप्तप्राय हो गया था। पर 2004 के बाद इसने अपना गतिविधियाँ दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में बढ़ाई हैं। फरवरी 2009 में इसने पाकिस्तान की उत्तर-पश्चिमी सरहद के करीब स्वात घाटी में पाकिस्तान सरकार के साथ एक समझौता किया है जिसके तहत वे लोगों को मारना बंद करेंगे और इसके बदले उन्हें शरीयत के अनुसार काम करने की छूट मिलेगी।

तालिबान की सत्ता जाने के बाद भारत ने अफगानिस्तान के विकास के लिए समर्थन देने को प्रतिबद्ध रहा . सभी 34 प्रांतों को कवर करने वाली 550 से अधिक सामुदायिक विकास परियोजनाओं सहित 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर की भारत की विकास साझेदारीका मकसद अफगानिस्तान को एक आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाना है. लेकिन विदेशी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में बिगड़ती स्थिति को लेकर भारत ने चिंता जाहिर की है. अफगानिस्तान में तेजी से बढ़ रही हिंसा पर चिंता जताते जाहिर की है. अफगानिस्तान में तेजी से बढ़ रही हिंसा पर चिंता जताते हुए भारत ने शुक्रवार को कहा कि युद्धग्रस्त देश पर किसका शासन होना चाहिए, इसका वैधता

एस. जयशंकर ने कहा, 'तीस वर्ष से ज्यादा समय से अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने पर चर्चा के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुए, समूह बने, कई रूपरेखा पेश की गईं. अगर हम अफगानिस्तान और उसके आसपास शांति चाहते हैं तो भारत और रूस के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे यह सुनिश्चित करने के लिए साथ मिलकर काम करें किआर्थिक, सामाजिक क्षेत्र में प्रगति बरकरार रखी जाए. हम एक स्वतंत्र, सम्प्रभु और लोकतांत्रिक अफगानिस्तान बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं.' भारत, अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता की प्रक्रिया का स्टेकहोल्डर है. भारत अफगानिस्तान में राष्ट्रीय शांति और सुलह प्रक्रिया का समर्थन करता रहा है जो अफगान-नेतृत्व वाली, अफगान-स्वामित्व वाली और अफगान-नियंत्रित है. तालिबान चीन की सीमा तक पहुंच गया है। वह भारतीय कश्मीर में संकट उत्‍पन्‍न कर सकता है। पाकिस्तान का तालिबानीकरण कर सकता है। ईरान भी इस खतरे से दूर नहीं है। तालिबान के सत्ता में आने से पाकिस्तान, ईरान, चीन और भारत में चिंता बढ़ेगी। आने वाले समय में इन मुल्कों के रिश्तों नई तरह से परिभाषित हो सकते हैं।

अल क़ायदा से संबंध रखने वाले जो अन्य आतंकवादी संगठन थे, जैसे कि इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान और तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान से अलग हुए छोटे आतंकवादी समूह. इन सभी ने ISKP के साथ गठजोड़ कर लिया. इसके अलावा इन संगठनों ने बांग्लादेश, श्रीलंका और भारत[7] से भी आतंकवादियों की भर्ती शुरू कर दी. आज ISKP और अल क़ायदा न सिर्फ़ ज़िंदा हैं, बल्कि पूरी तरह से सक्रिय भी हैं. जबकि, तालिबान ने इन संगठनों से अपना ताल्लुक़ ख़त्म कर लेने का वादा किया था. अल क़ायदा का इतने लंबे समय तक सक्रिय रहना इस कारण से संभव हुआ क्योंकि उसने हर क्षेत्र के स्थानीय आतंकवादी संगठनों के साथ गठजोड़ कर लिया. हक़्क़ानी नेटवर्क, जिसे पाकिस्तान की फ़ौज के हथियारबंद सहयोगी कहा जाता है, उसने अलग अलग आतंकवादी संगठनों के साथ गठजोड़ क़ायम कर लिया है. आज इन आतंकी संगठनों के बीच वैचारिक मतभेद और हितों का टकराव होने के बावजूद, तालिबान, अल क़ायदा और ISKP आपसी सहयोग का लाभ उठा रहे हैं. कई मिलिट्री कमांडर एक साथ सभी संगठनों में सक्रिय हैं. और इन सभी को पाकिस्तान के शासन तंत्र से संरक्षण मिलता है.

तालिबान के साथ एक समझौते के तहत, अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी आतंकियों से शांति की प्रतिबद्धता के बदले में सैनिकों की वापसी पर सहमत हुए थे.

तालिबान से पड़ोसी देशों को ख़तरा है: अफ़ग़ानिस्तान शांति समझौते का एक आयाम ये भी है कि इससे भारतीय उप महाद्वीप में इस्लामिक जिहादी समूहों को नई ताक़त मिलेगी. वो नई ताक़त से लैस होकर और हिंसक वारदातों को अंजाम दे सकते हैं. ईरान और अफगानिस्‍तान के मध्‍य 945 किमी लंबी सीमा है। हाल में तालिबान ने यह दावा किया था कि वह इस्लाम कलां इलाको पर कब्‍जा कर लिया है। उन्‍होंने कहा कि यह इलाका ईरान की सीमा के पास है। यानी तालिबान का प्रभुत्‍व ईरान की सीमा के पास तक हो चुका है।

शिया बहुल ईरान ने वैसे तो कभी तालिबान का खुला समर्थन नहीं किया है, लेकिन उसने कभी-कभी सुन्नी चरमपंथी संगठन तालिबान और अफगान सरकार के प्रतिनिधियों के बीच शांति वार्ता की मेजबानी की है। हाल में अफगान सरकार और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच तेहरान में हुई वार्ता के बाद ईरान ने स्‍पष्‍ट कहा था कि वह अफगानिस्‍तान में अमेरिका की नाकामी के बाद वहां जारी संकट को सुलझाने के लिए प्रतिबद्ध है।

अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों पर जिहादी हिंसा बढ़ने का ख़तरा इसलिए मंडरा रहा है क्योंकि तालिबान की राजनीतिक विश्वसनीयता कैसी है ये सबको पता है. इसके अलावा तालिबान और अल क़ायदा जैसे संगठनों के स्थायित्व का इतिहास कैसा रहा है, ये भी सबको पता है. अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने से पैदा हुए इस अवसर का लाभ उठाकर दूसरे आतंकवादी इस्लामिक संगठन अपने यहां नए लोगों की भर्ती और कट्टरपंथी विचारधारा के प्रचार प्रसार कर सकते हैं. इसके लिए वो अमेरिका के ऊपर तालिबान की जीत को उदाहरण के तौर पर प्रचारित कर सकते हैं. फिर, तालिबान की इस विजय के माध्यम से वो सोशल मीडिया पर अपनी ताक़त बढ़ाते हुए, आतंकवादियों और जिहादियों की नई टोली तैयार कर सकते हैं. और उन्हें कट्टरपंथ की ओर धकेलने के लिए तालिबान की जीत का मुग़ालता दिखा सकते हैं.


इस क्षेत्र में आतंकवादियों अपराधियों के अलग अलग समूहों के बीच का ये पेचीदा नेटवर्क, दक्षिण एशिया की स्थिरता के लिए ख़तरा है. अगर, तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक शक्ति और प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाते हैं, तो इससे इस क्षेत्र के अन्य इस्लामिक चरमपंथी संगठनों का हौसला बढ़ जाएगा. तालिबान, इस्लाम की कट्टरपंथी व्याख्या करता है. वो, अन्य क़ानूनों के बजाय इस्लामिक शरीयत क़ानूनों का राज चाहता है. उससे अफ़ग़ानिस्तान के उन सुधारों को बहुत बड़ा ख़तरा है, जो सुधार उसने वर्ष 2001 के बाद राजनीतिक, न्यायिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में किए हैं. इससे हक़्क़ानी नेटवर्क के हौसले भी बुलंद होंगे. उसे भी काबुल में पांव जमाने का मौक़ा मिल जाएगा. फिर वो अल क़ायदा जैसे आतंकवादी संगठनों को खुलकर समर्थन दे सकेगा.

तालिबान, इस्लाम की कट्टरपंथी व्याख्या करता है. वो, अन्य क़ानूनों के बजाय इस्लामिक शरीयत क़ानूनों का राज चाहता है. उससे अफ़ग़ानिस्तान के उन सुधारों को बहुत बड़ा ख़तरा है, जो सुधार उसने वर्ष 2001 के बाद राजनीतिक, न्यायिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में किए हैं.

अमेरिका और तालिबान के बीच जो समझौता हुआ है, उस में भारतीय उप महाद्वीप में अल क़ायदा (AQIS) का कोई ज़िक्र नहीं है. न ही उसके किसी सहयोगी संगठन का नाम इस समझौते में शामिल है. समझौते में केवल अल क़ायदा और इस क्षेत्र में उसकी मौजूदगी से अमेरिकी हितों को ख़तरे का हवाला दिया गया है. वहीं, भारतीय उप महाद्वीप की अल क़ायदा की शाखा (AQIS) भारत, बांग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान के लिए गंभीर ख़तरा है. इसकी वजह न केवल अल क़ायदा के इस ग्रुप की आतंकवादी हमलों को अंजाम देने की क्षमता है. बल्कि, ये हक़ीक़त भी है कि अल क़ायदा की इस शाखा (AQIS) के बहुत सारे आतंकवादी तालिबान की ओर से भी लड़ते रहे हैं. AQIS ने अलग अलग देशों में सक्रिय कई आतंकवादी समूहों और संगठनों को एक झंडे तले लाने में भी सफलता हासिल की है. इनमें अंसार ग़ज़वात-उल-हिंद, हरकत उल-मुजाहिदीन और इंडियन मुजाहिदीन जैसे भारत में सक्रिय आतंकी संगठन और अंसार अल-इस्लाम व जमात उल-मुजाहिदीन जैसे बांग्लादेशी आतंकवादी संगठन भी शामिल हैं.


भारत में अल क़ायदा की ये शाखा एक मज़बूत प्रचार अभियान चलाती है. जिससे कि बहुसंख्यक हिंदू आबादी और अल्पसंख्यक मुसलमानों के बीच टकराव और तनाव को बढ़ावा दिया जा सके. ये प्रचार किया जाता है कि, ‘भारत के मुसलमान हिंदुओं की ग़ुलामी के साए में रह रहे हैं.अल क़ायदा की जिहादी पत्रिका नियमित रूप से ऐसे लेख छापती है जिसमें भारत के मुसलमानों को अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान का समर्थन करने और इस्लामिक शरीया के हिसाब से चलने की अपील की जाती है. 2019 में अल क़ायदा के प्रमुख अयमन अल-ज़वाहिरी ने कश्मीर के मुजाहिदीन से अपील की थी कि वो भारत सरकार और इसकी सेना पर लगातार चोट करने उसे नेस्तनाबूद कर दें.अल ज़वाहिरी ने भारत की अर्थव्यवस्था को ऐसी चोट पहुंचाने की भी अपील की थी, जिससे उससे लगातार नुक़सान होता रहे. भारत में अल क़ायदा की ये शाखा (AQIS) अपने प्रचार का पूरा ज़ोर भारत में मुसलमानों से हो रहे अन्याय पर केंद्रित रखती है. मगर, ये संगठन भारत की बांग्लादेश नीति की भी आलोचना करता रहता है. वर्ष 2014 के बाद जब से AQIS ने बांग्लादेश में अपनी गतिविधियां बढ़ाई हैं, तब से ये संगठन बांग्लादेश के सेक्यूलर कार्यकर्ताओं, उदारवादी ब्लॉगर्स, नास्तिकों और LGBTQ समुदाय के लोगों को ये कह कर निशाना बनाता रहा है कि ये इस्लामिक मूल्यों के ख़िलाफ़ हैं. बौद्ध समुदाय के बहुमत वाले म्यांमार में AQIS अपने दुष्प्रचार के तहत लगातार रोहिंग्या समुदाय के ख़िलाफ़ ज़ुल्मों का हवाला देता रहता है. उसका मक़सद निराश रोहिंग्या युवाओं को कट्टरपंथ की ओर धकेलना है.


अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की विजय से भारत के लिए भी चुनौती बहुत बढ़ जाएगी. क्योंकि, इससे कश्मीर में सक्रिय भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों को नया हौसला मिल जाएगा. जैश-ए-मुहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठन पहले तालिबान के साथ सहयोग करते रहे हैं. और इन संगठनों का हाथ अफ़ग़ानिस्तान में कई आतंकवादी हमलों में पाया गया है.फ़रवरी 2019 में भारत के सुरक्षा बलों पर पुलवामा में हुआ आतंकी हमला एक ऐसे सुसाइड बॉम्बर ने किया था, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत से प्रेरणा लेकर ये अटैक किया था. ये हमलावर जैश-ए-मुहम्मद का एक सदस्य था. वो कश्मीर के युवाओं को भारत के विरुद्ध जिहाद के लिए उकसाता था. और इसके लिए अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के विरुद्ध तालिबान के जिहाद की मिसालें दिया करता था. अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से सेना हटाने के बाद जिहाद के प्रति झुकाव रखने वाले उप महाद्वीप के युवाओं को तालिबान की जीत से हौसला मिल सकता है.


मध्य एशिया के तीन गणराज्य-तुर्कमेनिस्तान, उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान की सीमाएं सीधे तौर पर अफ़ग़ानिस्तान से मिलती हैं. और अमेरिका के वहां से सेना हटाने के बाद इन देशों पर सीधा असर पड़ने की आशंका है. क्योंकि, अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी इलाक़ों में हिंसक घटनाएं बढ़ने की आशंका पहले ही जताई जा चुकी है. जब से अमेरिका और तालिबान के बीच समझौता हुआ है, तब से इन मध्य एशियाई देशों के आतंकवादी संगठन जैसे कि जमात अंसारुल्लाह (ताजिकिस्तान), कतीबत इमाम अल-बुख़ारी (उज़्बेकिस्तान)और तुर्केस्तान इस्लामिक पार्टी जैसे संगठनों ने अमेरिका पर इस विजय के लिए तालिबान को मुबारकबाद दी है. इन आतंकवादी संगठनों ने अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सेनाएं हटाने को इस्लामिक उम्माह की जीत बताया है. और ये विश्वास जताया है कि तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता में आने के बाद अल क़ायदा से अपने रिश्ते नहीं तोड़ेगा.

मध्य एशिया के तीन गणराज्य-तुर्कमेनिस्तान, उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान की सीमाएं सीधे तौर पर अफ़ग़ानिस्तान से मिलती हैं. और अमेरिका के वहां से सेना हटाने के बाद इन देशों पर सीधा असर पड़ने की आशंका है. क्योंकि, अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी इलाक़ों में हिंसक घटनाएं बढ़ने की आशंका पहले ही जताई जा चुकी है.क्या

तालिबान बदल सकता है?

अमेरिका और तालिबान के बीच अफ़ग़ानिस्तान का जो शांति समझौता हुआ है, उसमें अमेरिका ने ये माना है कि 2001 के बाद से तालिबान में बदलाव आया है. और जिस तालिबान से वो समझौता कर रहे हैं, वो नया है. अमेरिका इसी विश्वास की बुनियाद पर ये सोच रहा है कि तालिबान अगर अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में आते हैं, तो वो अपने देश को अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के ख़िलाफ़ आतंकवादी हमले करने का अड्डा नहीं बनने देंगे. तालिबान पर इसी यक़ीन के आधार पर अमेरिका ने इस आतंकवादी संगठन को विश्वसनीयता का प्रमाणपत्र दे दिया है. और तालिबान पर इसी भरोसे के आधार पर वो अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना भी हटाने जा रहा है. लेकिन, इस बात का कोई सबूत नहीं है कि तालिबान एक आतंकवादी संगठन से कुछ और बन गया है. या इस बात के भी कोई सबूत नहीं हैं कि मानव अधिकारों से लेकर महिलाओं की शिक्षा, लोकतांत्रिक व्यवस्था या सेक्यूलर मूल्यों पर उसका विश्वास बढ़ गया है. इस समझौते से अफ़ग़ानिस्तान में तैनात अमेरिकी और नैटो देशों के सैनिकों को कुछ समय के लिए सुरक्षा ज़रूर मिलती है. लेकिन, इससे अफ़ग़ानिस्तान के आम नागरिकों, सुरक्षा बलों और अफ़ग़ानिस्तान के सहयोगियों को भारी नुक़सान पहुंचा है.

इस शांति समझौते की कामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि तालिबान इसे लेकर ईमानदार और पारदर्शी रहे. किसी भी आतंकवादी संगठन से ये अपेक्षा करना बहुत बड़ी बात है. उस पर तालिबान जैसे आतंकवादी संगठन पर कैसे यक़ीन कर लिया जाए, जिसे बेगुनाह लोगों की हत्या करने में कोई शर्म या संकोच नहीं होता?

तालिबान के साथ हुए इस शांति समझौते में इसकी शर्तें तालिबान से मनवाने की कोई व्यवस्था नहीं है. सवाल ये है कि तब क्या होगा, अगर तालिबान, अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने के बाद दोबारा अल क़ायदा से हाथ मिला लेता है? तो क्या तब अमेरिका दोबारा अफ़ग़ानिस्तान में अपनी सेना को तैनाती के लिए भेजेगा? क्या इस समझौते के बाद अमेरिका अपने नागरिकों को इस बात की गारंटी दे सकता है कि उनके देश पर फिर कोई आतंकवादी हमला नहीं होगा? क्या अमेरिका ने तालिबान के साथ इस समझौते के तहत इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों की सुरक्षा की गारंटी की व्यवस्था की है? इस शांति समझौते की कामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि तालिबान इसे लेकर ईमानदार और पारदर्शी रहे. किसी भी आतंकवादी संगठन से ये अपेक्षा करना बहुत बड़ी बात है. उस पर तालिबान जैसे आतंकवादी संगठन पर कैसे यक़ीन कर लिया जाए, जिसे बेगुनाह लोगों की हत्या करने में कोई शर्म या संकोच नहीं होता? ये ऐसा संगठन है जो अपने ही देश के नागरिकों को बेझिझक मार डालता है. अगर, तालिबान इस समझौते के तहत तय हुई अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता है, तो अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर से अंदरूनी संघर्ष और आतंकवाद का बड़ा केंद्र बन जाएगा. अगर ऐसा होता है, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में पिछले दो दशकों में सफलताओं का जो सफर तय किया है, वो हाथ से निकल जाएगा

सामाजिक प्रतिबंध[

तालिबान ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के पश्तून इलाकों में वायदा किया था कि अगर वे एक बार सत्ता आते हैं तो सुरक्षा और शांति कायम करेंगे। वे इस्लाम के साधारण शरिया कानून को लागू करेंगे। हालाँकि कुछ ही समय में तालिबान लोगों के लिए सिरदर्द साबित हुआ। शरिया कानून के तहत महिलाओं पर कई तरह की कड़ी पाबंदियां लगा दी गईं थी। सजा देने के वीभत्स तरीकों के कारण अफगानी समाज में इसका विरोध होने लगा।

· तालिबान ने शरिया कानून के मुताबिक अफगानी पुरुषों के लिए बढ़ी हुई दाढ़ी और महिलाओं के लिए बुर्का पहनने का फरमान जारी कर दिया था।

· टीवी, म्यूजिक, सिनेमा पर पाबंदी लगा दी गई। दस उम्र की उम्र के बाद लड़कियों के लिए स्कूल जाने पर मनाही थी।

· तालिबान ने 1996 में शासन में आने के बाद लिंग के आधार पर कड़े कानून बनाए। इन कानूनों ने सबसे ज्यादा महिलाओं को प्रभावित किया।अफगानी महिला को नौकरी करने की इजाजत नहीं दी जाती थी। लड़कियों के लिए सभी स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दरवाजे बंद कर दिए गए थे।

· किसी पुरुष रिश्तेदार के बिना घर से निकलने पर महिला का बहिष्कार कर दिया जाता है।पुरुष डॉक्टर द्वारा चेकअप कराने पर महिला और लड़की का बहिष्कार किया जाएगा। इसके साथ महिलाओं पर नर्स और डॉक्टर्स बनने पर पाबंदी थी।

· तालिबान के किसी भी आदेश का उल्लंघन करने पर महिलाओं को निर्दयता से पीटा और मारा जाएगा।

तालिबानी सजा

अमेरिकी सेना की वापसी के साथ ही अफगानिस्तान में एक-एक करके तालिबानी कब्जा हो रहा है. इससे पूरी दुनिया में शांति के असंतुलन की आशंका जताई जा रही है. देश अपने स्तर पर तालिबान से शांति की बातचीत के प्रयास में है. हालांकि तालिबान के शासन से सबसे ज्यादा खतरा अफगानिस्तान में बसे हजारा समुदाय को है. जून में ही इस समुदाय पर बड़ा हमला हुआ, जिसमें 10 से ज्यादा हजारा मुस्लिमों की जान चली गई. वैसे हजारा समुदाय अफगानिस्तान ही नहीं, पाकिस्तान जैसे मुस्लिम-बहुत देश में भी सताया हुआ है.


कौन हैं हजारा मुसलमान

हजारा शिया मुसलमानों को मंगोल मूल का माना जाता है. फारसी भाषा का एक रूप हजारगी बोलने वाले इन मुसलमानों के बारे में अलग-अलग जानकारियां हैं कि ये असल में कहां से आए. माना जाता है कि मंगोल शासन के दौरान हजार सैनिकों का एक दस्ता तैयार हुआ था. ये लोग उन्हीं मंगोल सैनिकों के वंशज हैं.

दो नस्लों का मेल माना जाता है - पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मानते हैं कि हजारा शुद्ध मंगोल नहीं, बल्कि मंगोलों के मध्य एशिया की दूसरी जातियों के मेल से बना, जैसे तुषारी लोग, कुषाण लोग या उस इलाके में ईरानी भाषाएं बोलने वाले लोग.

कौन सी भाषा बोलते हैं

फिलहाल इस समुदाय का बड़ा हिस्सा अफगानिस्तान में बसा हुआ है, जहां ये लोग दरी फारसी की हजारगी उपभाषा बोलेते हैं. ये मॉडर्न फारसी का ही एक रूप है. इसके अलावा हजारा लोगों के नाम भी मंगोल शख्सियतों के नाम पर होते हैं. साथ ही उनकी सूरत भी बहुत-कुछ मंगोल नस्ल से प्रेरित है, जो कुछ तो चीनी लोगों की तरह होते हैं.

क्यों होती रही हिंसा

अब सवाल ये आता है कि हजारा समुदाय को अफगानिस्तान या पाकिस्तान में कोई प्रताड़ित किया जाता रहा. तो इसका जवाब है धार्मिक कट्टरता. अफगानिस्तान में हजारा लोगों पर तालिबानी हमला, इस समुदाय की औरतों के साथ बलात्कार आम बात रही.

तालिबानियों को दरअसल लगता है कि हजारा शुद्ध कौम नहीं. यहां बता दें कि हजारा शिया मुस्लिम हैं, जबकि तालिबान सुन्नी इस्लामिक आंदोलन. ऐसे में दोनों विचारधाराओं के बीच टकराव रहा. जब अफगानिस्तान में पूरी तरह से तालिबानी शासन था, तब भी हजारा शियाओं पर भारी हिंसा हुई थी और जहां ये लोग रह रहे थे, वहां भुखमरी फैल गई थी.

अमेरिकी सेना के आने पर लगभग 2 दशक पहले तालिबान कमजोर पड़ा. इसके बाद पहली बार हजारा समुदाय में उम्मीद जागी कि वे गरीबी और अशिक्षा से बाहर आ सकेंगे, हालांकि अब दोबारा वे खतरे में हैं. यही कारण है कि बीते कुछ ही महीनों में अफगानिस्तान से वो हजारा दूसरे देशों, जैसे ईरान की ओर पलायन कर गए. ये लोग समुदाय का काफी छोटा हिस्सा हैं, जो पलायन करके दोबारा बसने का खतरा ले सकते हैं. वहीं अफगानिस्तान में बाकी बचे हजारा लोग खतरे से बचने के लिए हथियार उठा सकते हैं, ये आशंका भी मंडरा रही है.

यही हाल पाकिस्तान में भी है

सुन्नी-बहुल इस देश में हजारा समुदाय के लोगों को नीची नजर से देखा जाता है. इसके अलावा आतंकी संगठन ISIS ने भी सुन्नी चरमपंथ को बढ़ावा दिया ताकि ईरान से मुकाबला हो सके. ऐसे में हजारा लोगों पर आतंकी हमले बढ़ते ही चले गए. अक्सर ही हजारा खनन और सड़क मजदूरों पर हमले की खबरें आती रहती हैं.

साल 2013 में हजारा समुदाय का कत्लेआम

मंगोलों की तरह चेहरे-मोहरे वाला ये समुदाय अलग से पहचान में आ जाता है और फिर इन्हें छांट-छांटकर सजा मिलती है. पाकिस्तान में साल 2013 में बड़ा नरसंहार हुआ था, जिसमें लगभग महीनेभर में ही सैकड़ों हजारा लोगों को मार दिया गया. मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने माना था कि आंकड़े हजारों में रहे होंगे लेकिन कोई पक्का प्रमाण नहीं मिल सका.

वैसे पाकिस्तान में इस समुदाय के कुछेक लोग ऊंचे पदों पर पहुंचे. जैसे कि जनरल मुहम्मद मूसा खान हजारा कमांडर इन चीफ थे. इसकी वजह ये भी ये समुदाय काफी मेहनती और शारीरिक तौर पर बहुत मजबूत होता है. ऐसे में माना गया कि भारत में गोरखाओं की तरह, पाकिस्तान में हजारा समुदाय को सेना में रखा जाएगा लेकिन धार्मिक चरमपंथियों के कारण ये संभव नहीं हो सका.