पर्यावरण एक गंभीर चुनौती, भारत की संस्कृति ही राह दिखाती है ।

पर्यावरण एक गंभीर चुनौती,

भारत की संस्कृति ही राह दिखाती है ।


भूमण्डल का ताप बढ़ रहा है। चीन मे जल-जला है ,जर्मनी मे मानो जलप्रलय है ,यही स्थिति आस्ट्रिया की है । मनुष्य के लोभ ने क्षिति, जल, पावक, गगन समीर को प्रदूषित किया है वनस्पतियां रो रही है, वन उपवन कट रहे हैं, कीट-पतंगे, तितलियां गायब हो रहे है. गोरैया ओझल हो रही ह। सावन भादों रसवर्षा नहीं लाते, मार्गशीर्ष के गुन महकते हुए नहीं उमंगते। ऋतुराज वसंत भी उदास-हताश है । मधुमास मधुमय नहीं रहता। गंगा सहित सभी नदियां प्रदूषित हैं , यमुना कचरा पेटी बना दी गई है । सरस्वती पहले ही नाराज होकर अन्तर्ध्यान हो गयीं। विकास का द्योगिक माडल प्रकृति और मनुष्यता का विनाश लेकर आया है । प्रकृति का हिंसक शोषण का उपभोग ही हमारी अमिरी का जीवन दृष्टिकोण बन चुका है। प्रकृति से संघर्ष ही विकास का मूल मंत्र है,इस सोच के चलते विश्व पर संकट है

पर्यावरण संकट का मूल कारण पश्चिम की लोभी द्योगिक उपभोगतावादी संस्कृति है । यूरोप में 1890 के दशक में पर्यावरण की चिन्ता सतह पर आई। यूरोपीय देशों ने 1902 में एक अन्तराष्ट्रीय शपथ पत्र पर हस्ताक्षर किये। छिटपुट विचार-विमर्श चलेसंयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.) 1972 में बना। उद्देश्य था जनजागरण और प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व सूचना देना। 1992 में पर्यावरण और विकास पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ने "कार्यक्रम-21" जारी किया। इसके लिए 1993 में सतत् विकास आयोग बना। "कार्यक्रम-21" दरअसल पर्यावरण प्रबंधन से ही जुड़ा था। सन् 2000 में पेरिस में "अर्थ चार्टर कमीशन" में विश्व के ढेर सारे वैज्ञानिक तीन दिन बैठे। दो दिन के विचार मंथन के बाद 21 सूत्र खोजे गये। तीसरे दिन भारतीय प्रतिनिधियों ने अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त की चर्चा की।

ब्रह्माण्ड का एक-एक कण, जीव, उल्का, ग्रह नक्षत्र हमारे परिजन है यह सब मिलाकर हमारा परिवार है यही पर्यावरण। ऐसे ही ज्ञान से हमारे वेदो में पर्यावरण संरक्षण के सारे सूत्र हैं। लेकिन भारत में वेदों की चर्चा करना भी साम्प्रदायिकता कही जाने लगी। बहरहाल सन् 2005 में संयुक्त राष्ट्र का "सहस्राब्दी पर्यावरण आकलन" जारी हुआ। 95 देशों के 1360 विद्वानों ने धरती के अस्तित्व को खतरा बताया, भूगर्भ जल स्तर नीचे गया है, 12 प्रतिशत पक्षी, 25 प्रतिशत स्तनपायी और एक तिहाई मेढक नष्ट प्राय: हैं। वनस्पति जगत की तमाम प्रजातियां नष्ट हो रही हैं आदि, आदि। पर्यावरण संकट अन्तरराष्ट्रीय है लेकिन भारत में तो ऋग्वैदिक काल से ही धरती माता और आकाश पिता माने गए है "माता पृ्वी-पिता आकाश"। नदियां, वनस्पतियां माताएं और देवी हैं, हमारे पूर्वज समूची प्रकृति को देवरूप ही देखते थे । यजुर्वेद में एक लोकप्रिय स्तुति है। इस मंत्र में द्युलोक, अंतरिक्षऔर पृ्वी से शान्ति की भावपूर्ण प्रार्थना है "ॐ द्यौ शांतिरन्तरिक्ष: शांति: पृ्वी शांतिराप: शान्ति: रोरय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं: शान्तिरिश्व शान्ति: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं: शान्तिरे शान्तिरे शान्ति: सा मा्िॐ।" अर्थात- "जल शान्ति दे, औषधियां-वनस्पतियां शान्ति दें, प्रकृति की शक्तियां - विश्वदेव, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शान्ति दे. सब तरफ शान्ति हो, शान्ति भी हमें शान्ति दें." यहां शान्ति भी एक देवता है

मधुमय प्रकृति में रूप है, रस है, गन्ध है , ध्वनियां हैं, वे दिग्दिगन्तर "मधु" कामना करते हैं , "मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धव: माध्वीर्न: सन्त्वोषधी: मधु नक्तमुतोष सो मधुमत्पार्थिवं रज :. मधु घौरस्तु न: पिता, मधुमान्नो वस्पतिर्म धुमां अस्तु सूर्य :. माध्यवीर्गावो भवन्तु न: । (ऋग्वेद 1.90/6, 7, 8)

वायु मधुमय है नदियों का पानी मधुर हो, औषधियां, वनस्पतियां मधुर हों। माता पृथ्वी के रज कण मधुर हों, पिता आकाश मधुर हों, सूर्य रश्मियां भी मधुर हों, गादं मधु दुंग अथर्ववेद के भूमि सूक्त में कहते हैं, "देवता जिस भूमि की रक्षा उपासना करते हैं वह मातृभूमि हमें मधु सम्पन्न करे. इस पृथ्वी का हृदय परम आकाश के अमृत से सम्बंधित रहता है. वह भूमि हमारे राष्ट्र में तेज बल बढ़ाये. पृथ्वी सूक्त के 12.1 7. 8 श्लोक कहते हैं "हे पृ्वी माता आपके हिम आच्आादित पर्वत र वन शत्रुरहित हों, आपके शरीर के पोषक तत्व हमें प्रतिष्ठा दें। यह पृप्वी हमारी माता है और हम इसके पुत्र- मात्र- माता भूमि पुत्रो अहम पृथ्व्य्या:।

पर्यावरण में मधुमयता हेतु ऋग्वेद में स्तुति है ,, "हे द्यावा पृथ्वी, मधु मिमिक्षताम्" आप दोनों हम सबको मधुर से युक्त करो। माता का स्वभाव ही पुत्रों को मधुरस देना है। कहते हैं , "आप - मधुश्च्युता - मधुर रस का स्राव करने वाली हो।" ब्रह्माण्ड का एक-एक कण, जीव, उल्का, ग्रह नक्षत्र हमारे परिजन है यह सब मिलाकर हमारा परिवार है यही पर्यावरण। वृहदारण्यकोपनिषद् (अध्याय 2, ब्राह्माण्ड 5) में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को समझाया, "इयं पृथ्वी सर्वेषा भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु - यह पृथ्वी सभी भूतों (मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी के मधु." ( वही, 1) इसी प्रकार "यह अग्नि समस्त भूतों का मधु है और समस्त अग्नि के मधु है" यह वायु समस्त भूतों का मधु है, समूची सृष्टि प्रकृति का परिवार है , सब आनंद मग्न रहें। मधुमय हो सबका जीवन। प्रगाढ़ संवेदना की तरंग में इसी अनुभूति से जन्म लेती है

प्रकृति की सभी शक्तियां एक सुनिश्चित विधान मेे चलती है वैदिक भाषा में इसे ऋत कहा गया। ऋत नियमों से परे कोई नहीं है । अग्नि प्रकृति की विराट शक्ति है वे भी "ऋतस्य क्षत्ता" हैअग्नि ऋत-सत्य के प्रकाशक "ऋतस्य दीदिवं" है। नदियां भी ऋतावरी है, विष्णु बड़े देवता हैं लेकिन "धर्मान्" - धर्म धारण करते हुए तीन पग लेते है तेजस्वी सूर्य भी "धर्मणा" है , सविता द्युलोक, अंतरिक्ष और पृ्वी को "स्वायधर्मणे" - अपने धर्म के कारण प्रकाश से भरते है (4.53.3) जो ऋत है, वह सत्य है, ऋत औत सत्य का अनुसरण धर्म है प्रजापति इसीलिए "सत्यधर्मा" हैप्रकृति की सभी शक्तियां नियमबद्ध हैं। तो मनुष्य का आचरण भी नियम आबद्ध होना चाहिए।

पृ्वी के बाद पर्यावरण का मुख्य घटक है जल। ऋग्वेद में जल को विश्व का जन्म देने वाली श्रेष्ठ- मां कहा गया - मातृतमा विषस्य स्य स्पातातुर्ग्ग्र जनिनि (6.50.7) सृष्टि विकास का डारविन सिद्धांत भी जीवों की उत्त्ति जल से मानता है। जल हमारे जीवन का आधार है। ऋग्वेद में है "हे यज्ञ प्रेमियो ! हम सब जल को प्रतिष्ठा दें।" आगे स्तुति है, "जो दिव्य जल (आपो दिव्या) आकाश से आते हैं, नदियों में प्रवाहित हैं, जो खोदकर (कुआं आदि) प्राप्त होते हैं जो स्वयं प्रवाहित, शुचिता लाते हैं, वे जल माताएं हम सबकी रक्षा करें।"

ऋग्वेद में जल संस्कृति का कल-कल प्रवाह है। जल आचमनीय था, पवित्र करता था। प्राण का पोषण करता है । हम सब उसका संरक्षण करते हैं। ऋग्वेद की ही जल संस्कृति से परम्परा का विकास अथर्व वेद में भी है। इसमे एक स्तुति है "जल माता-देवी हमारा कल्याण करे ऋषि दीर्घजीवन के अभिलाषी हैं. इसलिए स्तुति है," जल माता हमें आरोग्यवद्र्धक पुण्य औषधियां दे. वे प्रत्येक जल से स्तुति करते हैं" सूखे प्रदेश का जल कल्याण दे, जल से भरे प्रदेश का जल सुख दे, भूगर्भ जल सुखप्रद हो, लोटा-गिलास का जल शान्ति दे और वर्षा जल भी सुख शान्ति दे. " वे जल हमारा पोषण मां की तरह करते हैं. जैसे वात्सल्यपूर्ण माताओं का स्नेह उमड़ता ही रहता है, उन्हीं माताओ, की भांति आप हमे पोषण दें ।

जल वर्षा है, वर्षा से अन्न है, अन्न से प्राणी है। जल से ही वनस्पतियां जीवन जगत से जुड़े हैं। जल सुखी और समृद्ध जीवन का आधार है शतपथ ब्राह्मण में तो "आपो वै प्राण:" जल को ही प्राण बताया गया है। सभी देव जल में ही प्रतिष्ठित हैं "यद् देवा अद: सलिले, सुंरब्धा अतिष्ठत्। " देवों तक अपनी स्तुतियां पहुंचाने के लिए भी जल ही साधन है। वे ही पितरों तक पिंडदान पहुंचाते हैं। लेकिन विश्व जल संकट के कगार पर है। जलाशय सूखे हैं। वन-उपवन नंगे-उजाड़ हैं। बादल बिना बरसे ही घूम फिरकर लौट जाते हैं। वैदिक ऋषियों ने जलमाताओं से संवाद किया था, स्मृतियों में जल संरक्षण को महान पुण्य बताया गया है. वृहस्पति ने कहा है "नया जलाशय बनवाने या पुराने को संरक्षण देने वाले का कुल मिलाकर उद्धार होता है." पाराशर ने जल दूषित करने वाले को कुत्ते की योनि में जाने की बात काही है । उन्होंने जल दूषित करने वाले विद्वान ब्राह्मण को भी यही है । लेकिन आधुनिक सभ्यता में जल को माता, दिव्यता मानने और जानने की परम्परा समाप्त हो गयी। वेदों की जागरूकता ऋत अर्थात नियम वर्तमान मे ये सिर्फ औपचारिकता बन गई है ।


पर्यावरण का एक मुख्य घटक वायु है। वायु प्रत्येक प्राणी का प्राण है, लेकिन देवों का प्राण भी वायु ही है त्मा देवाना। वायु प्रत्यक्ष देव हैं और प्रत्यक्ष ब्रह्म भी। ऋग्वेद में स्तुति है "नमस्ते वायो, त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रहमासि, त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि. तन्मामवतु" वायु को नमस्कार है, आप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं, मैं तुमको ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा। आप हमारी रक्षा करें।" तैत्तिरीय उपनिषद् मे भी है, "वायु ही सभी भुवनों में प्रवेश करता हुआ प्रत्येक रूप,रूप में प्रतिरूप होता है।"वायुर्थेको भुवनं प्रविष्टो रूपं,रूपं प्रतिरूपो वभूव" सभी जीवों में प्राण की सत्ता है।प्राण वस्तुत:वायु है.मनुष्य पांच तत्वों से बनता है. मृत्यु के समय सभी तत्व अपने-अपने मूल में लौट जाते हैं। वशिष्ठ के सूक्तों में गाया गया है "हे मरुत, आपने हमारे पूर्वजों? फिर मरुतों का स्वभाव बताते हैं "वे वर्षणशील मेघों के भीतर गर्जन है। कहते हैं, मरूद्गण वर्षा के भी देवता है। वे मनुष्यों को अन्न पोषण देते हैवायु प्राण हैं, अन्न भी प्राण हैं। अन्न का प्राण भी वर्षा है। वायुदेव/मरुतगण वर्षा लाते है, ऋग्वेद में की स्तुति हैं, "आपके आगमन पर हम हर्षित होते है, स्तुतियां करते हैं।" लेकिन कभी-कभी वायु नहीं चलती, उमस हो जाती है। प्रार्थना है, "हे मरूतो आप दूरस्थ क्षेत्रो में न रुकें, द्युलोक अंतरिक्ष लोक से यहां आयें। 8)भारत का भावबोध गहरा है। वायु प्राण है, वायु जगत् का स्पंदन है। वैदिक मंत्रों में प्राणवायु की सघनता है। हम सब वैदिक संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं।

वैदिक परम्परा के सूत्र आज भी लोक रीति में हैं । तुलसी पूजा, पीपल पूजा और वटवृक्ष की पूजा के तत्व वन संरक्षण से ही जुड़े हुए हैगांवों में आज भी पेड़ काटने को पाप र वृक्षारोपण को पुण्य बताया जाता है ।नदियों के दीपदान का अर्थ नदी का सम्मान करना है, यज्ञ हवन के कर्मकाण्ड रूढ़ि नहीं है , इनमें प्रकृति की प्रीति और वातायन शुद्धि की ही आकांक्षा है । यजुर्वेद के एक सुंदर मंत्र हैं, "यह हवि-स्वाहा समुद्र को मिले. यह स्वाहा अन्तरिक्ष जाये. यह स्वाहा सूर्य को प्राप्त हो, यह मित्र वरुण को, यह रात्रि-दिवस को, यह पृथ्वी को, यह सोम वनस्पतियों, यह स्वाहा सभीदिव्य शक्तियोंको और यह स्वाहा छन्दस को।" यहां छन्दस् पर्यावरण का ही पर्यायवाची है।ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य तनावग्रस्त है। प्रीतिपूर्ण वार्तालाप का ध्वनिस्तर 20 डेसीबिल, जोरदार बहस का 60, मिक्सी का 85, मोटर साइकिल का 90, राजधानी दिल्ली का औसत स्तर 80-150 है। कोलकाता का 80-147, मुम्बई 71-104 लेकिन लखनऊ का 70-80 है । सभी शहरों का ध्वनि स्तर सामान्य (50-60 डेसीबिल) से ज्यादा है । इसका मनुष्य की श्रवण शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ा है।